Editorial : बुरा कौन है? हिन्दू या मुसलमान?

सम्पादकीय : गुजरात का मतदाता मौन है. बीजेपी आश्वस्त है. कांग्रेस में आत्मविश्वास पनप रहा है लेकिन उसमें सशक्त नेतृत्व का अभी भी अभाव दिखाई देता है. कांग्रेस के दिग्गज मन की बात भी ज़बान पर नहीं लाना चाहते. वे जानते हैं कि कांग्रेस इसबार गुजरात में पार्टी को शर्मिंदगी से बचा लेगी. पार्टी का चुनाव भी होना है जिसमें राहुल की ताजपोशी होना तय है. कांग्रेस के स्थाई पतन की यहीं से शुरुआत होना लाज़मी है. यदि पार्टी में वंशवाद ही चलाना है तो हर स्थिति में अंततः प्रियंका को शीर्ष नेतृत्व की प्रथम पंक्ति में लाना ही होगा , गुजरात के नतीजे चौंकाने वाले नहीं होंगे क्योंकि वहां विकल्प नहीं है. ---डॉ. रंजन ज़ैदी

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शुक्रवार, 16 जून 2017

ब्लैक वाटर फ़ोर्स/-2 रंजन जैदी

नाटो और इस्राईल के खतरनाक खेल 

          नाटो के देश अमेरिका के नेतृत्व में एक नए युग की शुरुआत करना चाहते थे. इसकी शुरुआत वे अफगानिस्तान से करना चाहते थे क्योंकि इसमें अमेरिकी के छुपे हित जुड़े हुए थे. अमेरिका की नज़र में अफगानिस्तान सोवियत रूस के पतन का प्रतीक है और यूएसएसआर को पराजित होकर अफगानिस्तान से बाहर निकलना पड़ा था. यहाँ का बेस पाकर अमेरिका रूस, चीन, और भारत की सैनिक, राजनयिक, राजनीतिक और कूटनीतिक गतिविधियों प़र निगाह रखना चाहता था. यह इसलिए ज़रूरी था कि उसे यहीं से ईरान की  सामरिक गतिविधियों प़र भी निगाह रखनी थी और इराक के पतन का सिनेरिओ भी तैयार करना था. 
      योजना प़र अमलदरामद करते हुए अमेरिका अब इराक का अंत देखना चाहता था. इसलिए उसके विरुद्ध प्रचारतंत्र की हवाओं के झोंके तेज़ कर दिए गए और यह प्रचरित किया जाने लगा कि इराक जैविक हथियार बनाकर सारी दुनिया को समाप्त कर देना चाहता है. यह भी ऐसा ही प्रचार था जिसमें सीरिया के एक हिस्से पर कब्ज़ा कर वहां से एक बेहूदा प्रचार शुरू किया गया कि आइसिस के आतंकवादी लड़ाके एक नया देश बनाकर सारी दुनिया में इस्लामी कट्टरवाद कि स्थापना करना चाहता है. इस प्रचार तंत्र में नाटो की मदद इस्राईल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद कर रही थी क्योंकि वृहद इस्राईल के स्वप्न को पूरा करने के लिए अरब के मुल्कों का पतन ज़रूरी है. डिक्चेनी ने बुश को अपने आईने में उतारकर वृहद् इसराइल के नक़्शे पर बिठा दिया था. इससे एक लाभ यह था कि जंग की आग इस्राईल को किसी भी हालत में लपेट नहीं पायेगी.और न ही सीरया से खुलकर उसे गोलन हाइट के मोर्चे
खोलने पड़ेंगे. 
      आइसिस की सफलता से इस्लामी चरम-पंथियों को तेज़ी से प्रचार मिलने लगा. इससे दुनिया भी डर गई.रूस जनता था कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अब कौन सी करवट लेने का इरादा कर रही है. 
     आइसिस के जन्म से पूर्व  इराक का नेतृत्व वहां के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के हाथ में था जो अरब वर्ल्ड को एक नक़्शे में समेटने का सपना देख रहा था और जिसके पास हौसला भी था और तेल भी, लड़ने की क्षमता और आधुनिक हथियारों का ज़खीरा भी. परेशानी यह थी कि वह अमेरिका का दोस्त (जैसे आज सऊदी अरब है.) था लेकिन मुहब्बत और जंग में दोस्ती कोई माने नहीं रखती. 
      जब दोस्ती थी तो इराक में जार्ज बुश की तेल-कंपनियों ने  में खूब कमाई की. सद्दाम ने भी दोस्ती निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. तब अमेरिका का पहला पत्ता रणनीति की बिसात पर फेंका गया. राजनीति के तहत  अमेरिका की ओर से सद्दाम हुसैन को सूचना दी गई कि ज़मीन के नीचे क्वैत ने चोरी से पाइपलाइन डाल रखी है और वह इराक का क्रूड आयल लगातार चुरा रहा है. उसने यह सूचना कभी नहीं दी कि यह काम काफी समय से इस्राईल भी कर रहा है. 
      अपनी सूझबूझ और महत्वकांक्षी योजना को अमल में लाने की ग़रज़ से सद्दाम हुसैन ने अमेरिका (कथित दोस्त) से समर्थन मंगा तो वह उसका साथ देने के लिये तुरंत राज़ी हो गया. हालांकि यह उसकी एक कूटनीतिक चाल थी. इराक ने अंततः क्वैत पर आक्रमण कर उसपर कब्ज़ा कर लिया. यहीं से अमेरिका की रणनीति को पंख
लग गए. इराक की तबाही की शुरुआत यहीं से हो जाती है. इराक में नाटो को अपनी फौजें उतारने का बहाना मिल गया और फिर आगे जो कुछ हुआ, उसे सारी दुनिया ने देखा, जाना और महसूस किया. ये सर्द जंग के दौर के अंत का एक भयानक सिनेरिओ था जिसे अभी आगे भी अपनी पटकथा को लिखना था. 
      इराक का पतन हो गया और सद्दाम हुसैन को सजाये-मौत. अब अमेरिका की निगाह मिस्र पर आ टिकी जहाँ अब तक राजनीतिक आन्दोलन तेज़ किया जा चुका था. मिस्र में हुस्नी मुबारक का तख्ता पलटना ज़रूरी था. सीआईए और मोसाद  अपने मिशन को कामियाब बनाने के लिए करोङों डालर फूँक रहा था  इस्राईल मिस्र को कमज़ोर देखना चाहता था. वह इस विकेट को हर हाल में गिराने पर आमदह था  क्योंकि  मुस्लिम राष्ट्रों में मिस्र एक ऐतिहासिक, सामरिक, अनुभवी और ताक़तवर देश था जिसने कभी उसकी शक्ति को न केवल ललकारा था बल्कि उसकी ताकत को तोड़ भी दिया था. इसलिए मुस्लिम वर्ल्ड में मिस्र का ताकतवर बना रहना अमेरिका की भावी योजनाओं के लिए भी उचित नहीं था. 
      समय ने इस विकिट को भी अंततः गिरा दिया. अब बारी थी लीबिया के ताकतवर और गरजते रहने वाले राष्ट्रपति मोम्मिर गज़ाफी से पुराने हिसाबों को चुकाने और लीबिया की तेल की अकूत सम्पदा पर कब्ज़ा करने की. आगे क्या हुआ,पढ़िए अगली कड़ी में. (जारी...3/-)

गुरुवार, 15 जून 2017

ब्लैक वाटर फ़ोर्स/रंजन जैदी

सोवियत यूनियन के बिखरने से अंतर्राष्ट्रीय सामरिक संतुलन का बिगड़ जाना स्वाभाविक था. अमेरिका अब नाटो के सहारे अपनी उन सामरिक योजनाओं को पूरा करने के उद्देश्य से अपने कदम बढ़ाने के लिए आजाद था.
डिक्चेनी ने इसका फायदा उठाते हुए इराक, ईरान और उत्तरी कोरिया की ओर अपने प्रचार की तोपों के दहाने खोल दिए. प्रचारित किया जाने लगा कि ये तीनों मुल्क एटमी ताकत बनने के लिए यूरेनियम के ज़खीरे जमा कर रहे हैं. उत्तरी कोरिया एक गैर मुस्लिम देश है. अमेरिका ने इसे डिप्लोमेटिक पोलिसी को ध्यान में रखते हुए ही अपने एजेंडे में शामिल किया था. भविष्य में भी उसपर हमला करने का कोई इरादा भी नहीं था. में इराक पहले नंबर पर था. इराक के हुक्मरां सद्दाम हुसैन थे जिनसे बुश सीनियर की पुरानी दुश्मनी थी. सद्दाम एक सैनिक तानाशाह थे, इसमें कोई दो राय नहीं कि सद्दाम ने अपने शासनकाल में हजारों-लाखों बेगुनाह इराकियों के खून से होली खेली. इनमें ८६.०७ प्रतिशत शीया मुस्लिम थे. शीया बहुल ईरान से वर्ष तक जंग . बग़दाद स्थित पवित्र इमारतों की दीवारों को गोलियों से छलनी किया, जिनके निशान आज भी वहां देखे जा है. वर्षों से ६० प्रतिशत से अधिक आबादी वाले देश पर सुन्नियों का जालिमाना शासन रहा. इन्कलाब--ईरान बाद इराक में इन्कलाब का आना स्वाभाविक था लेकिन इससे पहले कि वहां इन्कलाब आता, अमेरिका ने अपनी चाल चल दी. डिक्चेनी ने सऊदी अरब के शाह को अपने प्रभाव में लेकर राज़ी किया कि वह अमेरिकी के लिए अपने हवाई अड्डे उपलब्ध कराये और इस्लामी कट्टरपंथियों से केवल सख्ती से निपटें बल्कि अमेरिकी सैनिकों से भी दूर रखें. डिक्चेनी की डिप्लोमेसी काम करने लगी थी. इसी के तहत मार्च,२००३ में अमेरिका अपने टैंक बगदाद में प्रवेश कराने में कामियाब हुआ. यही नहीं, टैंकों के साथ ही अमेरिका ने पहली बार अपनी किराये की सेना को भी बगदाद में दाखिल कर दिया जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है. यह वह फ़ौज थी जिसने अफगानिस्तान में अपने जालिमाना जौहर दिखाकर डोनाल्ड रम्सफील्ड के हौसले बुलंद कर दिए थे. CIA के रिटायर्ड अधिकारी कोफर ब्लैक ने किराये की सेना के ख़ुफ़िया तंत्र का निदेशन अपने हाथ में ले लिया था. यहाँ विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका के पूर्व सीनियर-जूनियर राष्ट्रपति बुश अमेरिका के निजी सामरिक हितों को भूल कर डिक्चेनी की उन महत्वपूर्ण महत्वकांक्षाओं को नहीं समझ पाए या समझना नहीं चाहा जो इस्राईल को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में पनपते देखना चाहता है और अरब के मुस्लिम देशों को गुलाम बनाना चाहता है क्योंकि उनके पास तेल की अकूत दौलत है. अरब के मुसलमानों और यहूदियों के बीच शुरू से छत्तीस का आंकड़ा रहा है. हालाँकि दोनों के पैगम्बर कुरआन का हिस्सा हैं. हजरत पैगम्बर सुलेमान अगर यहूदियों के पैगम्बर हैं तो वह मुसलमानों के भी हैं. लेकिन कुरआन यहूदियों पर यकीन करने की हिदायत भी देता है. अमेरिका में ३६ प्रतिशत इकोनोमी पर यहूदियों की इजारेदरी है. वहां अनेक यहूदियों की संस्थाएं हैं. डिक्चेनी एक कट्टरपंथी यहूदी होने के कारण उनसे जुदा रहता है. बुश का पैत्रिक व्यवसाय तेल है. उसकी आयल रिफायनारीस इराक में भी रही हैं और उसमें यहूदियों की बड़ी हिस्सेदारी रही है. उन हिस्सेदारों में डिक्चेनी भी एक है. एक कमिटेड यहूदी होने के नाते उसने सत्ता में रहते हुए सदैव इस्राईल की सैनिक ढाल बने रहने का काम किया. वह नहीं चाहता था कि इस्राईल के आस-पास के इस्लामी मुल्क ताकतवर बनें. इराक और लीबिया को आर्थिक और सामरिक मदद करते रहे हैं जिसमें सऊदी अरब भी एक है. फिलिस्तीनी मुजहिदिनी संगठन इस्राइली शासकों के लिए शुरू से सर दर्द बने रहे हैं. यासिर अराफात की हत्या करने के बाद इसराइल अब फिलिस्तीनी संगठनों के सभी स्रोतों को समाप्त कर देना चाहता है. इसलिए बग़दाद पर कब्ज़ा करते ही मोसाद अमेरिका की ब्लैक फ़ोर्स के साथ मिलकर लगातार कार्यवाई करता रहा. यहाँ तक की उसके सैनिक तक इराक में अपने मज़बूत ठिकाने बनाते रहे और हर उन ठिकानों पर हमले करते रहे जहाँ से इसराइल को खतरे महसूस हो रहे थे. इस योजना के पीछे का दिमाग डिक्चेनी का था. उनकी ताकत को तोड़ने और सदैव उसके देशों  को डिस्टर्ब रखने की योजना भी उसी की ही थी जिसमें स्पष्ट है कि अमेरिका के भी हित छुपे हुए थे.

                                                          क्रमशः : जारी /-2  

बुधवार, 14 जून 2017

मुस्लिम समाज का दर्द /डॉ. मनीष कुमार

राजनीतिक-सामजिक मसलों पर मौलिक विचार और उसके धारदार विश्लेषण के माहिर हैं.डॉ. मनीष कुमार।  अपनी नेतृत्व 

क्षमता के साथ चौथी दुनिया में संपादक (समन्वय) का दायित्व संभालते रहे हैं. विजुअल मिडिया का उनका लंबा अनुभव तो है ही, प्रिंट मीडिया में भी  वह अपनी शिनाख्त दर्ज करा चुके  है. प्रस्तुत है वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक, विचारक डॉ. मनीष कुमार का यह लेख.    
  बिहार में आश्चर्यजनक चीजें होती हैं. मुसलमानों की समस्याओं पर सेमिनार हो, वक्ता राजनीतिक दलों के नेता और सामाजिक कार्यकर्ता हों और कोई आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद की बात करे, अगर कोई संघ परिवार और बजरंग दल को दोषी और अपराधी बताए, अगर बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठे, अगर कोई भावनात्मक भाषण दे, अगर मौलाना और मौलवी इस्लाम पर आने वाले खतरे को छोड़, शिक्षा और नौकरी की बातें करने लगें, तो हैरानी होती है. होनी भी चाहिए. आश्चर्य होने की वजह संघ परिवार का नाम लिया जाना नहीं है. आश्चर्य तो इस बात का है कि अपने तीसरे सेमिनार में ही ईटीवी ने पूरी दुनिया के सामने मुस्लिम समाज के बदलते स्वरूप को बड़ी सफाई से रख दिया.
      मुस्लिम समाज बदल रहा है. कम से कम राजनीतिक चेतना के स्तर पर यह बदलाव तो दिख ही रहा है. पहले बिहार, फिर पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम यही बताते हैं. अल्पसंख्यक समाज का सत्ताधारी दल से मोहभंग हुआ और बिहार से लालू यादव और पश्चिम बंगाल से 34 साल पुरानी वामपंथी सत्ता का सफाया हो गया. लेकिन अभी भी मुस्लिम समाज अपनी सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक दुर्दशा से लड़ रहा है. शुभ संकेत यह है कि अब खुलकर इन समस्याओं पर बात हो रही है, राष्ट्रीय स्तर पर खुली बहस हो रही है. मुस्लिम समाज के लोग अब मंदिर-मस्जिद जैसे भावनात्मक मुद्दों की जगह शिक्षा, रोजगार और में अपनी भागीदारी जैसे असल मुद्दों पर बात कर रहे हैं.
राजनीति
      मुसलमानों की चुनौतियां क्या हैं, इस विषय पर पटना के रवींद्र भवन में एक सेमिनार हुआ. इसमें देश भर से नेता, पत्रकार और मौलवी शामिल हुए. इस सेमिनार को ईटीवी उर्दू ने आयोजित किया. ईटीवी देश के अलग-अलग शहरों में मुसलमानों की चुनौतियों को लेकर सेमिनार करा रही है. पटना से पहले जयपुर और मुंबई में ऐसे ही सेमिनार हो चुके हैं. पटना के सेमिनार की अध्यक्षता भारतीय जनता पार्टी के नेता और बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने की. इस सेमिनार के मुख्य अतिथि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे. इस सेमिनार में रामविलास पासवान भी थे और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भी अपनी बात रखी. सेमिनार में बिहार के मुस्लिम समाज के जाने-माने लोग मौजूद थे. साथ ही इस कार्यक्रम को ईटीवी के सभी हिंदी और उर्दू चैनलों पर लाइव दिखाया गया. इस सेमिनार के जरिए मुस्लिम समाज ने साफ संदेश दिया कि अब कोई झांसा देकर मुसलमानों के वोट नहीं ले सकता. संघ और भाजपा का डर दिखाकर कोई वोट नहीं ले सकता. जो मुसलमानों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए काम करेगी, वही पार्टी मुसलमानों के समर्थन की हकदार होगी.
      इस सेमिनार की शुरुआत बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अब्दुल बारी सिद्दीकी ने की. वैसे मुसलमानों में उनकी काफी इज़्ज़त है, लेकिन ऐसे मौके पर उनके पास कुछ बोलने को नहीं था, क्योंकि पंद्रह सालों के लालू राज में मुसलमानों का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ. हजरत मौलाना निजामुद्दीन ने कहा कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक तो राजनेताओं के लिए एक औजार हैं, जिससे वे राजनीति करते हैं. उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की संख्या कम है. इसके लिए उन्होंने स्टेज पर बैठे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी सलाह दे डाली कि वह ऐसे मुसलमान नेताओं से घिरे हैं, जो चमचागीरी में लगे हैं. ऐसे लोग मुसलमानों में कोई असर नहीं रखते हैं. जो लोग मुस्लिम समाज में काम करते हैं, सरकार को उनकी बातों पर गौर करना चाहिए. उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरियों में जनसंख्या के मुताबिक मुसलमानों को नौकरी मिले, इसके लिए हर बच्चे और बच्चियों को तालीम की ज़रूरत है.
   जाज़ अली ने मुस्लिम समुदाय के अंदर मौजूद अलग-अलग वर्गों का विश्लेषण किया.  उन्होंने कहा कि गरीब मुसलमानों की चुनौतियां अलग हैं और अमीर मुसलमानों की  चुनौतियां  अलग हैं. उन्होंने यह दलील दी कि आज मुसलमानों की हालत दलितों से भी खराब है,  इसलिए  मुसलमानों को भी दलितों की तरह ही सहूलियतें दी जाएं.
      सेमिनार मुसलमानों की चुनौतियों पर था, लेकिन कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने मीडिया को ही सीख देना उचित समझा. उन्होंने कहा कि किसी भी ब्लास्ट के तीन मिनट बाद टीवी चैनलों को नाम का पता कैसे चल जाता है. कैसे यह चलने लगता है कि फलां इमाम, फलां मोहम्मद, फलां हाशमी इस ब्लास्ट के पीछे है. उन्होंने बेझिझक कहा कि मीडिया का रोल बहुत ही निगेटिव होता जा रहा है. शकील अहमद सरकार चलाने वाली पार्टी के प्रवक्ता हैं. उन्हें यह सवाल सरकार से पूछना चाहिए, क्योंकि जो नाम आता है, उसे पुलिस और खुफिया एजेंसी के लोग ही बताते हैं. उन्हें यह सवाल गृहमंत्री से पूछना चाहिए कि उनके अधिकारी मीडिया के साथ मिलकर इस तरह की अफवाह क्यों उड़ाते हैं. अगर कोई चैनल गलत खबरें देता है तो उसे सजा देने से किसने रोका है? वैसे भी कांग्रेस पार्टी की एक दिक्कत है कि जब भी मुसलमानों के विकास पर कोई चर्चा होती है तो वह थोड़ा बेचैन हो जाती है. 63 सालों के बाद भी अगर मुसलमान समाज के सबसे पिछड़े वर्ग में शामिल हो गया है तो इसके लिए जिम्मेदार सरकार ही है और इन 63 सालों में एक-दो बार छोड़कर कांग्रेस की ही सरकार रही है.
      कांग्रेस की लाइन पर ही लालू यादव की पार्टी आरजेडी है. हमें पता है कि इस सेमिनार में लालू यादव को भी शामिल होना था, लेकिन वह नहीं आए. क्या वजह रही होगी, यह पता नहीं, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि पटना में बिहार के सारे बड़े मुस्लिम नेता मुसलमानों की समस्याओं पर विचार कर रहे थे, बिहार के बाहर से आए नेता और समाजसेवी शिरकत कर रहे थे, ऐसे में जिस नेता को 15 सालों तक मुसलमानों ने अपना मसीहा समझा, अपना समर्थन दिया, वह नेता कैसे इस तरह के जलसे को नज़रअंदाज कर सकता है. लालू यादव अगर इस सेमिनार में आते तो उनके और मुसलमानों के बीच बनी दूरियां थोड़ी कम जरूर होतीं. लालू यादव नहीं आए, लेकिन रामविलास पासवान आए. उन्होंने अपने भाषण से बिहार के मुसलमानों के दिलों को जीता. उन्होंने राजनीतिक भाषण देने के बजाय मुसलमानों के दर्द को बताया. उन्होंने कहा कि दलितों और मुसलमानों की समस्याएं एक हैं, उनका दर्द एक है, यही उनका संदेश था
      मुसलमानों को आज़ादी के बाद से आज तक गुमराह ही किया जाता रहा. अगर सरकारों ने मुसलमानों को गुमराह किया होता तो 63 सालों में उनकी हालत बद से बदतर होती. जब तक राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिलती, तब तक मुसलमानों का विकास नहीं होगा.
      नीतीश कुमार का भाषण एक मुख्यमंत्री का भाषण था. राजनीतिक भाषण. शुरुआत में उन्होंने बिहार के नेता प्रतिपक्ष पर चुटकी ली, फिर अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने लगे. भागलपुर के दंगाइयों को सजा दिलाने का श्रेय लिया. उसके बाद आंकड़ों के साथ उन्होंने बताया कि किस तरह बिहार सरकार ने मुसलमानों के लिए विशेष योजना लागू की और किस तरह वह सफल रही. इसके अलावा उन्होंने केंद्र सरकार पर निशाना लगाया. केंद्र सरकार की मल्टी सेक्टोरल डेवलेपमेंट प्रोग्राम की कमियां गिनाईं और बिहार सरकार के पक्ष पर सफाई दी. यह प्रोग्राम देश के अल्पसंख्यक बहुल जिलों के लिए बनाया गया है. नीतीश कुमार ने बताया कि इस प्रोग्राम का फोकस अल्पसंख्यकों का विकास नहीं है, बल्कि यह पूरे जिले के विकास के लिए बनाया गया है. वैसे अल्पसंख्यकों के बीच नीतीश कुमार की छवि काफी अच्छी है
      चौथी दुनिया के एडिटर इन चीफ संतोष भारतीय ने नीतीश कुमार की सरकार को यह चेतावनी दी कि इस बार चुनाव में मुसलमानों ने नीतीश कुमार का चेहरा देखकर भरोसे के साथ एनडीए को वोट दिया है. इस विश्वास को बचाए रखने का काम सरकार का है. उन्होंने दो टूक कहा कि अगर मुसलमानों के विकास के लिए सरकार ने कुछ नहीं किया तो नीतीश कुमार की हालत भी लालू प्रसाद की तरह हो जाएगी.
      मौलाना वली रहमानी ने जब बोलना शुरू किया तो नीतीश सरकार की पोल परत दर परत खुल गई. मौलाना वली रहमानी का भाषण सुनकर ऐसा नहीं लगा कि वह कोई मौलाना हैं, बल्कि वह एक वकील की तरह अपनी दलीलें दे रहे थे, एक विपक्ष के नेता की तरह बोल रहे थे. जब वह बोल रहे थे, तब नीतीश कुमार जा चुके थे. उन्होंने कहा कि स्टेज पर अच्छी-अच्छी बातें सुनने को मिलती हैं, लेकिन असलियत यह है कि चाहे वह बिहार सरकार हो या फिर केंद्र सरकार, उसने मुसलमानों के साथ सिर्फ धोखा किया है. तालीम के मैदान में जब मुसलमान आगे बढ़ते हैं तो उनकी टांग खींच दी जाती है. मामला कब्रिस्तान की घेराबंदी का हो, मुसलमानों के लिए कटिहार मेडिकल कालेज का हो या फिर मुसलमानों के बीच काम करने वाले एनजीओ या केंद्र सरकार की योजनाओं का, मौलाना वली रहमानी ने पूरी रिसर्च और आंकड़ों के साथ सरकार की नाकामी को उजागर किया. शिया गुरु और इस्लामिक स्कॉलर कल्बे रुशैद रिजवी ने सबसे ज़्यादा तालियां बटोरीं. उन्होंने कहा कि मुसलमानों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उनमें एकता नहीं है, क्योंकि सियासत ने पूरे समाज को बांट दिया है. उन्होंने कहा कि मुसलमानों की राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि वे अपने वोट का सही इस्तेमाल कर सकें.
इस देश के मुसलमानों को अपनी देशभक्ति की परीक्षा देने की ज़रूरत नहीं है. 1947 में जब बंटवारा हुआ, जिन लोगों ने यहां रहना कबूल कर लिया, वे परीक्षा में पास हो गए. अब हर पांच साल पर उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने का अधिकार किसी को नहीं है.
      बंगाल से आए तृणमूल कांग्रेस के नेता और केंद्रीय पर्यटन राज्यमंत्री सुल्तान अहमद ने कहा कि मुसलमानों की चुनौतियां वही हैं, जो देश की चुनौतियां हैं. साठ सालों के बाद भी अगर हमें गरीबी रेखा बनानी पड़े, रोटी, कपड़ा, मकान, सड़क, बिजली और पानी के लिए जद्दोजहद करनी पड़े तो हमारे सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. उन्होंने सरकार को जवाबदेह बनाने में जनता की भागीदारी की बात कही और बताया कि अल्पसंख्यकों के लिए केंद्र से पैसा राज्यों में आता है, लेकिन जिला अधिकारी उसे खर्च नहीं करता है, पैसा वापस चला जाता है. उन्होंने कहा कि मुसलमानों को जिलाधिकारियों से जवाब तलब करना चाहिए कि उस पैसे का क्या हुआ. जब तक मुसलमान संगठित होकर सरकार और अधिकारी पर दबाव नहीं डालेंगे, तब तक सरकारी योजनाओं का फायदा मुसलमानों को नहीं मिलने वाला. उत्तर प्रदेश की पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. मोहम्मद अयूब ने मुसलमानों की चुनौतियों से निपटने का रास्ता बताया. उन्होंने कहा कि मुसलमानों को आज़ादी के बाद से आज तक गुमराह ही किया जाता रहा. गुमराह करने वाले राजनीतिक दलों के बारे में उन्होंने बताया कि इनके चेहरे अलग हैं, ज़ुबान बहुत मीठी है, मगर दिल बहुत काला है. अमल बिल्कुल नहीं है. इनसे गुमराह होने की जरूरत नहीं है. अगर सरकारों ने मुसलमानों को गुमराह किया होता तो 63 सालों में उनकी हालत बद से बदतर होती. उन्होंने मुसलमानों की चुनौतियों से निपटने के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण का रास्ता सुझाया. उन्होंने कहा कि जब तक राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिलती, तब तक मुसलमानों का विकास नहीं होगा. डॉ. अयूब की दलील सही इसलिए है, क्योंकि प्रजातंत्र का मतलब ही यही है कि लोग अपने विकास के लिए राजनीतिक सत्ता का उपयोग करें. मुसलमानों ने अब तक इसका इस्तेमाल करना नहीं सीखा है. राजनीतिक दलों ने अगर मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है तो उसके लिए जितनी जिम्मेदार ये पार्टियां हैं, उतना ही ज़िम्मेदार मुस्लिम समुदाय है.
      पूर्व सांसद एजाज़ अली ने मुस्लिम समुदाय के अंदर मौजूद अलग-अलग वर्गों का विश्लेषण किया. उन्होंने कहा कि गरीब मुसलमानों की चुनौतियां अलग हैं और अमीर मुसलमानों की चुनौतियां अलग हैं. उन्होंने यह दलील दी कि आज मुसलमानों की हालत दलितों से भी खराब है, इसलिए मुसलमानों को भी दलितों की तरह ही सहूलियतें दी जाएं. दलितों की तरह ही गरीब मुसलमानों को भी आरक्षण मिले. यह मुसलमानों का हक है. पसमांदा मुसलमानों के नेता और जेडीयू सांसद अली अनवर जब बोलने आए तो हंगामा हो गया. अली अनवर ने कहा कि अगर धर्म के नाम पर आरक्षण की मांग हुई तो कोर्ट ऐसे कानून को निरस्त कर देगा, इसलिए आरक्षण का मूल आधार सामाजिक पिछड़ापन होना चाहिए. हालांकि अली अनवर तर्क-संगत बात कर रहे थे. यही बात एजाज अली ने कही और उनके बाद रामविलास पासवान ने भी यही कहा, लेकिन बिहार की जनता है कि बिना किसी हंगामे के किसी समारोह को वह सफल ही नहीं मानती. इसलिए हंगामा हुआ, कार्यक्रम सफल हो गया. एक बात जो समझ में नहीं आई कि इस सेमिनार में कुछ ऐसे वक्ताओं को भी बोलने का मौक़ा दिया गया, जो विषय पर कम बोले और उन्होंने इस सेमिनार को अपनी राजनीति चमकाने का एक जरिया बनाया. बेगूसराय के सांसद मोनाजिर हसन ने अपना सारा समय नीतीश कुमार के गुणगान में लगा दिया. मुसलमानों की चुनौतियों पर कुछ भी नहीं कहा. शायद उन्हें मुसलमानों की चुनौतियों के बारे में कोई अंदाजा हो या फिर उन्होंने इस सेमिनार के जरिए नीतीश कुमार की नज़रों में अपनी खोई हुई साख को फिर से मजबूत करने की कोशिश करना उचित समझा.
      इस सेमिनार का मास्टर स्ट्रोक बिहार के उप मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता सुशील कुमार मोदी ने मारा. उनकी नम्रता की तारीफ होनी चाहिए. कहां ऐसा नेता मिलता है आजकल, जो दिन भर बैठा रहे और लोगों के कटाक्ष पर मुस्कराता रहे. वह इस सेमिनार में सबसे पहले आए और सबसे आखिर में बोले. बीच में उन्हें भूख भी लगी, तुरंत खाना खाकर वापस स्टेज पर आकर बैठ गएसुशील कुमार मोदी इस सेमिनार के अध्यक्ष थे, इसलिए उनका भाषण निर्णायक था. उन्होंने एक ऐसी बात कही, जिसे सुनकर ऐसा नहीं लगा कि वह भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं. उन्होंने कहा कि इस देश के मुसलमानों को अपनी देशभक्ति की परीक्षा देने की ज़रूरत नहीं है. 1947 में जब बंटवारा हुआ, जिन लोगों ने यहां रहना कबूल कर लिया, वे परीक्षा में पास हो गए. अब हर पांच साल पर उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने का अधिकार किसी को नहीं है.                             उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी नई सोच के साथ आगे बढ़ रही है. उन्हें तो पता भी नहीं है कि बंटवारा क्या था. वह पिछली बातों को भूलकर आगे बढ़ना चाहती है, नया इतिहास बनाना चाहती है, इसलिए हमारा यह दायित्व है कि हम उसे ऐसा माहौल दें, जिसमें वह भारत को आगे लेकर जा सके. उन्होंने कहा कि अगर मुसलमानों ने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया होता तो हम चुनाव नहीं जीत पाते. हम किसी को उंगली उठाने का मौका नहीं देंगे कि सुशील कुमार मोदी या एनडीए की सरकार ने हिंदू और मुसलमानों में कोई भेदभाव किया है. इसके अलावा उन्होंने एक ऐसी बात कही, जो भारतीय जनता पार्टी के किसी भी नेता के मुंह से सुनने नहीं मिलती है. उन्होंने कहा कि बीस करोड़ से ज़्यादा अल्पसंख्यक वर्ग अगर कमजोर रह गया, शिक्षा में पीछे रह गया, अगर वह आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा रह गया तो यह देश कभी मजबूत नहीं बन पाएगा और कोई भी राजनीतिक दल इस बीस करोड़ की आबादी की उपेक्षा करके, उसके साथ भेदभाव करके राजनीति नहीं कर सकता है. अब पता नहीं कि सुशील कुमार के इन विचारों को दिल्ली में बैठे भारतीय जनता पार्टी के नेता सुन पाते हैं या नहीं.

      इस कार्यक्रम को 11 करोड़ से ज़्यादा लोगों ने टेलीविजन पर देखा. उन्होंने इन नेताओं का आकलन किया होगा कि हमारे नेता मुसलमानों की चुनौतियों से वाकिफ हैं भी या नहीं. वे जो बोलते हैं और जो करते हैं, उसमें क्या अंतर है. ईटीवी की इस मुहिम की सराहना होनी चाहिए. इतना जरूर कहना पड़ेगा कि इस सेमिनार ने मुसलमानों को जागरूक किया हैमुस्लिम समाज बदल गया हैउसे अब भावनात्मक मुद्दों से ज़्यादा शिक्षारोज़गारअधिकार और विकास की चिंता सता रही हैयही वजह है कि बिहार में बदलाव की हवा चली  तो मुसलमान भारतीय जनता पार्टी को भी वोट देने में नहीं हिचकेकेरलअसम और तमिलनाडु में भी मुसलमानों ने इस बार अलग सोच के तहत वोटिंग कीमुसलमान अपने वोट की कीमत को समझने लगा हैपहले वह ठगा जाता थासेकुलर-कम्यूनल की दीवार में फंस जाता थामुस्लिम समाज बदल गया है