कौन थे हुसैनी
ब्राह्मण….क्या
है उनकी
वीरगाथा?
गुरू द्रोणाचार्य के एकमात्र पुत्र अश्वत्थामा |
ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा महाभारत से बच निकल कर घायल अवस्था में इराक पहुँच कर, वहीं बस गए. अश्वत्थामा वंश के दत्त ब्राह्मणों ने इराक में अपनी बहादुरी का परचम लहराया. उन्होंने अरब, मध्य एशिया और इराक में अपना साम्राज्य स्थापित किया. अश्वत्थामा के ये वंशज आगे चलकर मोहियाल ब्राह्मण कहलाये और इन मोहियाल ब्राह्मणों
नें एक मुस्लिम शासक के लिए अपनी संतानों की कुर्बानी तक दे दी. द्रोणाचार्य दत्त शाखा के मोहियाली ब्राहमण थे. ब्राहमण का यह ऐसा वर्ग है जो अपने को मोहियाल ब्राह्मण कहलाने में गर्व महसूस करता है. ब्राह्मण का यह वर्ग शिव भक्त कहलाता है और यह बहुत ज़बरदस्त लड़ाकू माने जाते हैं. हिन्दू धर्म की रक्षा और सम्मान के लिए ये अपनी जान देते रहे हैं. इन्होंने हज़रत इमाम हुसैन के लिए भी जानें दी हैं, इन्हें हुसैनी ब्राह्मण भी कहा जाता है.
मोहम्मद साहब के काल में दत्त ब्राह्मण का राजा राहिब सिद्ध दत्त हुआ करते थे. राजा सिद्ध निःसन्तान थे और वे मोहम्मद साहब से सन्तान का आशीर्वाद मांगने गये . लेकिन जब उसे पता चला कि उसके भाग्य में संतान नहीं है और वह मायूस हो कर लौटने लगा, तभी मोहम्मद साहब के छोटे नाती हज़रत इमाम हुसैन ने राजा सिद्ध दत्त को सात संतानों का आशीर्वाद दिया. हज़रत इमाम हुसैन के आशीष स्वरुप सिद्ध दत्त के यहां बारी-बारी से कुल सात पुत्रों का जन्म हुआ और इस तरह वह मोहम्मद साहब के खानदान के संपर्क में आये.
इस्लाम की रक्षा और भ्रष्ट शासक यज़ीद के अधीन उसकी कलंकित सत्ता को मान्यता न देकर हज़रत इमाम हुसैन ने सपरिवार मदीने से चलकर कर्बला में खेमे गाड़ दिए. यहां आकर उन्होंने यज़ीद के हाथों बैत न कर मैदाने-कर्बला में लड़ाई लड़ना बेहतर समझा। 10 अक्टूबर 680 में कर्बला की भयानक जंग में इमाम हुसैन और उनके 72 जांनिसार शहीद हो गए. इस्लामिक-जगत की यह एक दर्दनाक घटना थी. जिसने सुना, वह क्रोधावेश में भड़क उठा. ऐसे जांनिसारों में एक हिन्दू राजा सिद्ध दत्त भी था. उसने आवेश में ही अपनी सेना को तैयार होने का हुक्म दे दिया. वह यज़ीद से बदला लेने के लिए आतुर हो उठा. यजीदी सेना कर्बला के मैदान में जमकर उत्पात मचा रही थी. दुर्भाग्य यह था कि यह सेना भी उम्मियों (मूल अरब के मुस्लिम बद्दू) की थी. सब मुहम्मद का कलमा पढ़ते थे, इमाम हुसैन हज़रत मुहम्मद साहब के निवासे थे.
घटना उस समय की है जब इमाम हुसैन का सर कलम कर दरबारे ख़ास की ओर ले जाया जा रहा था, तब राजा राहिब सिद्ध दत्त की सेना ने इब्ने-साद के सैनिको का पीछा करना शुरू कर दिया. उसकी सेना ने द्रुत-गति से यजीदी सैनिकों पर हमलाकर उनसे इमाम हुसैन का सर छीन लिया. इमाम का सर लिए हुए वह अभी यज़ीद को सबक़ सिखाने के उद्देश्य से दमिश्क की ओर बढ़ ही रहा था कि रास्ते में एक जगह पड़ाव पर रात को यजीदी लश्कर ने शबख़ून कर उन्हें चारों ओर से घेर लिया और इमाम हुसैन के सिर की मांग करने लगे. सिद्ध दत्त ब्राह्मण के दिल में इमाम हुसैन के कत्ल का बदला लेने की आग भड़क रही थी. उसने सर देने से इंकार कर दिया. उसने कहा, मैं ऐसा नहीं कर सकता. हाँ! तुम चाहो तो हुसैन के सर बदले मेरे सातों बेटों के सर काटकर यज़ीद के दरबार में ले जा हो. यदि ऐसा नहीं करोगे तो हम जंग के लिए भी तैयार हैं. लश्कर ने जंग की चुनौती स्वीकार कर ली और इमाम का सर छीन लिया. इस लड़ाई में राजा के आदेश पर सातों पुत्रों ने अपने पिता को वहां से सुरक्षित निकालकर खुद युद्ध करते हुए शहीद हो गए.
बदला पूरा करने के लिए राजा राहिब सिद्ध दत्त, (इमाम हुसैन पर निसार हो जाने की हिम्मत रखने वाले युवक) अमीर मुख्तार के साथ जा मिले जो यज़ीदियत को ही ख़त्म करने का बीड़ा उठा चुके थे. दोनों की सेना ने बहादुरी से लड़ते हुए चुन-चुन कर हुसैन के कातिलों से बदला लिया.
इमाम हुसैन की शहादत और अपने सात बेटों के बलिदान की घटना को याद रखने के लिए राजा राहिब सिद्ध दत्त ने दर्जनों दोहे लिखे, जो मोहर्रम में उनके वंशजों के घरों में आज भी मुहर्रम-चेहल्लुम में पढ़े जाते हैं . हुसैनी ब्राह्मण यहीं से दत्त ब्राह्मण कहलाए जिनके पूर्वज खैबर के रास्ते से होकर हिन्द में दाखिल हुए और नदियों के किनारे आकर बस गए. इलाहबाद, वाराणसी और कानपूर में इनके परिवार रहते हैं. इनकी पहचान यह है कि इनकी गर्दनों पर तलवार से कटजाने का निशान आज भी पाया जाता है. Email shweta@religionworld.in