Editorial : बुरा कौन है? हिन्दू या मुसलमान?

सम्पादकीय : गुजरात का मतदाता मौन है. बीजेपी आश्वस्त है. कांग्रेस में आत्मविश्वास पनप रहा है लेकिन उसमें सशक्त नेतृत्व का अभी भी अभाव दिखाई देता है. कांग्रेस के दिग्गज मन की बात भी ज़बान पर नहीं लाना चाहते. वे जानते हैं कि कांग्रेस इसबार गुजरात में पार्टी को शर्मिंदगी से बचा लेगी. पार्टी का चुनाव भी होना है जिसमें राहुल की ताजपोशी होना तय है. कांग्रेस के स्थाई पतन की यहीं से शुरुआत होना लाज़मी है. यदि पार्टी में वंशवाद ही चलाना है तो हर स्थिति में अंततः प्रियंका को शीर्ष नेतृत्व की प्रथम पंक्ति में लाना ही होगा , गुजरात के नतीजे चौंकाने वाले नहीं होंगे क्योंकि वहां विकल्प नहीं है. ---डॉ. रंजन ज़ैदी

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शुक्रवार, 16 जून 2017

ब्लैक वाटर फ़ोर्स/-2 रंजन जैदी

नाटो और इस्राईल के खतरनाक खेल 

          नाटो के देश अमेरिका के नेतृत्व में एक नए युग की शुरुआत करना चाहते थे. इसकी शुरुआत वे अफगानिस्तान से करना चाहते थे क्योंकि इसमें अमेरिकी के छुपे हित जुड़े हुए थे. अमेरिका की नज़र में अफगानिस्तान सोवियत रूस के पतन का प्रतीक है और यूएसएसआर को पराजित होकर अफगानिस्तान से बाहर निकलना पड़ा था. यहाँ का बेस पाकर अमेरिका रूस, चीन, और भारत की सैनिक, राजनयिक, राजनीतिक और कूटनीतिक गतिविधियों प़र निगाह रखना चाहता था. यह इसलिए ज़रूरी था कि उसे यहीं से ईरान की  सामरिक गतिविधियों प़र भी निगाह रखनी थी और इराक के पतन का सिनेरिओ भी तैयार करना था. 
      योजना प़र अमलदरामद करते हुए अमेरिका अब इराक का अंत देखना चाहता था. इसलिए उसके विरुद्ध प्रचारतंत्र की हवाओं के झोंके तेज़ कर दिए गए और यह प्रचरित किया जाने लगा कि इराक जैविक हथियार बनाकर सारी दुनिया को समाप्त कर देना चाहता है. यह भी ऐसा ही प्रचार था जिसमें सीरिया के एक हिस्से पर कब्ज़ा कर वहां से एक बेहूदा प्रचार शुरू किया गया कि आइसिस के आतंकवादी लड़ाके एक नया देश बनाकर सारी दुनिया में इस्लामी कट्टरवाद कि स्थापना करना चाहता है. इस प्रचार तंत्र में नाटो की मदद इस्राईल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद कर रही थी क्योंकि वृहद इस्राईल के स्वप्न को पूरा करने के लिए अरब के मुल्कों का पतन ज़रूरी है. डिक्चेनी ने बुश को अपने आईने में उतारकर वृहद् इसराइल के नक़्शे पर बिठा दिया था. इससे एक लाभ यह था कि जंग की आग इस्राईल को किसी भी हालत में लपेट नहीं पायेगी.और न ही सीरया से खुलकर उसे गोलन हाइट के मोर्चे
खोलने पड़ेंगे. 
      आइसिस की सफलता से इस्लामी चरम-पंथियों को तेज़ी से प्रचार मिलने लगा. इससे दुनिया भी डर गई.रूस जनता था कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अब कौन सी करवट लेने का इरादा कर रही है. 
     आइसिस के जन्म से पूर्व  इराक का नेतृत्व वहां के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के हाथ में था जो अरब वर्ल्ड को एक नक़्शे में समेटने का सपना देख रहा था और जिसके पास हौसला भी था और तेल भी, लड़ने की क्षमता और आधुनिक हथियारों का ज़खीरा भी. परेशानी यह थी कि वह अमेरिका का दोस्त (जैसे आज सऊदी अरब है.) था लेकिन मुहब्बत और जंग में दोस्ती कोई माने नहीं रखती. 
      जब दोस्ती थी तो इराक में जार्ज बुश की तेल-कंपनियों ने  में खूब कमाई की. सद्दाम ने भी दोस्ती निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. तब अमेरिका का पहला पत्ता रणनीति की बिसात पर फेंका गया. राजनीति के तहत  अमेरिका की ओर से सद्दाम हुसैन को सूचना दी गई कि ज़मीन के नीचे क्वैत ने चोरी से पाइपलाइन डाल रखी है और वह इराक का क्रूड आयल लगातार चुरा रहा है. उसने यह सूचना कभी नहीं दी कि यह काम काफी समय से इस्राईल भी कर रहा है. 
      अपनी सूझबूझ और महत्वकांक्षी योजना को अमल में लाने की ग़रज़ से सद्दाम हुसैन ने अमेरिका (कथित दोस्त) से समर्थन मंगा तो वह उसका साथ देने के लिये तुरंत राज़ी हो गया. हालांकि यह उसकी एक कूटनीतिक चाल थी. इराक ने अंततः क्वैत पर आक्रमण कर उसपर कब्ज़ा कर लिया. यहीं से अमेरिका की रणनीति को पंख
लग गए. इराक की तबाही की शुरुआत यहीं से हो जाती है. इराक में नाटो को अपनी फौजें उतारने का बहाना मिल गया और फिर आगे जो कुछ हुआ, उसे सारी दुनिया ने देखा, जाना और महसूस किया. ये सर्द जंग के दौर के अंत का एक भयानक सिनेरिओ था जिसे अभी आगे भी अपनी पटकथा को लिखना था. 
      इराक का पतन हो गया और सद्दाम हुसैन को सजाये-मौत. अब अमेरिका की निगाह मिस्र पर आ टिकी जहाँ अब तक राजनीतिक आन्दोलन तेज़ किया जा चुका था. मिस्र में हुस्नी मुबारक का तख्ता पलटना ज़रूरी था. सीआईए और मोसाद  अपने मिशन को कामियाब बनाने के लिए करोङों डालर फूँक रहा था  इस्राईल मिस्र को कमज़ोर देखना चाहता था. वह इस विकेट को हर हाल में गिराने पर आमदह था  क्योंकि  मुस्लिम राष्ट्रों में मिस्र एक ऐतिहासिक, सामरिक, अनुभवी और ताक़तवर देश था जिसने कभी उसकी शक्ति को न केवल ललकारा था बल्कि उसकी ताकत को तोड़ भी दिया था. इसलिए मुस्लिम वर्ल्ड में मिस्र का ताकतवर बना रहना अमेरिका की भावी योजनाओं के लिए भी उचित नहीं था. 
      समय ने इस विकिट को भी अंततः गिरा दिया. अब बारी थी लीबिया के ताकतवर और गरजते रहने वाले राष्ट्रपति मोम्मिर गज़ाफी से पुराने हिसाबों को चुकाने और लीबिया की तेल की अकूत सम्पदा पर कब्ज़ा करने की. आगे क्या हुआ,पढ़िए अगली कड़ी में. (जारी...3/-)